Monday, July 30, 2012

पसमांदा को अपने अम्बेडकर का इंतजार

खालिद अनीस अंसारी

पसमांदा विमर्श ने जम्हूरियत के सवाल को मुस्लिम राजनीति का केन्द्रीय प्रश्न बना दिया है और अम्बेडकर की तर्ज़ पर यह ऐलान कर दिया है कि मुसलमानों के अंदर भी जाति का सवाल केवल सामाजिक सुधार के सहारे नहीं बल्कि राजनीतिक आंदोलन के ज़रिये भी हल होगा। पसमांदा का नामकरण हो चुका है और अब यह आंदोलन तेज़ी से फैल रहा है

छह दिसम्बर 2007 को जब पूरे देश में मुसलमान संगठन बाबरी मस्जिद के विध्वंस की सोलहवीं वषर्गांठ पर शोक और आक्रोश व्यक्त कर रहे थे, बिहार के चम्पारण जिले के एक छोटे से गांव रामपुर बैरिया में उसी रात मुसलमानों की वर्चस्वशाली जाति अशरफ ने अपने ही मज़हब की कमज़ोर जातियों के 6 घरों को आग लगाकर जला डाला। यह विवाद कुछ महीने पहले इबादत के हक को लेकर शुरू हुआ था। एक दिन गांव की मस्जिद में नमाज़ के दौरान कुछ सैयद और पठान तबके के लोगों ने कोहनी मार कर अंसारी (बुनकर, जुलाहे) और मंसूरी (धुनिया) जैसी कमज़ोर बिरादरियों के लोगों को पीछे की कतारों में नमाज़ पड़ने को कहा। वैसे तो यह आम बात थी और मज़बूत बिरादरियों का अल्लाह के घर में आगे की सफों में नमाज़ पढ़ने पर अलिखित आरक्षण रहा करता था, मगर उस दिन हवा का रु ख कुछ और ही था। इन दबी-कुचली बिरादरियों के कुछ नौजवान लोगों ने जब इसका विरोध किया तो उनको मस्जिद के बाहर जबरन खदेड़ दिया गया। लिहाज़ा, गांव की इन जातियों ने इस मस्जिद का बहिष्कार कर अपने लिए छप्पर और घास- फूस की अलग मस्जिद बना ली और वहां नमाज़ अदा करना शुरू किया। इस पर गांव की दबंग मुस्लिम जातियों के अहम को ठेस लगी और एक दिन चढ़ाई कर दी उन्होंने जुलाहों और धुनियों की इस मस्जिद पर। अगड़े अशरफ तबके मस्जिद फूंक कर बगावत की इसी दास्तान को वह दफनाना चाहते थे। वे हमेशा ऐसा करते आए थे लेकिन अब समय करवट ले रहा था। जम्हूरियत की ताज़ा हवा रामपुर बैरिया में भी दस्तक देने लगी थी। पसमांदा संगठनों ने इस मुद्दे को जोरशोर तरीके से उठाया और अख़्ाबारों में इस खबर को जगह भी मिली। गांधी के नाम से जुड़े चम्पारण के इस गांव में पसमांदा मुसलमानों के लिए आजादी 1947 में नहीं बल्कि थोड़ी देर से 2007 में पहुंची!

जाति सिर्फ हिन्दुओं की बीमारी नहीं
यह अकेला उदाहरण नहीं है अकलियतों में जातीय अंतर्विरोधों का। पसमांदा आख्यान इस तरह के प्रसंगों से भरे पड़े हैं। जाति सिर्फ हिन्दुओं की बीमारी नहीं बल्कि भारत में सामाजिक संस्तरण का मूल तत्व और प्रधान अंतर्विरोध है। इस कारण यह यहां के सारे अल्पसंख्यक समाजों में भी नज़र आता है। जहां मुसलमान अशरफ़, अजलाफ़ और अरजाल समूहों में बंटे हुए हैं, वहीं सिख समाज जाट/खत्री और मज़हबी समूहों में और ईसाई सिरियन/सारस्वत और दलित ईसाइयों में विभाजित हैं। गौर से देखा जाए तो धर्म की राजनीति, चाहे वह बहुसंख्यकों की हो या अल्पसंख्यकों की, उच्च जातियों की राजनीति है। सारे धार्मिंक गुरु -नेता और प्रतिष्ठानों-इदारों में उच्च जातियों का ही वर्चस्व पाएंगे। जहां हिन्दू धार्मिंक राजनीति पर सवर्णो का नियंतण्रहै, वहीं मुसलमानों में अशरफ तबके का वर्चस्व है। सत्ता की गलियों में भी मुख्यत: सारे धर्मो की उच्च जातियां ही पहुंच पाती हैं। इसके अतिरिक्त, जाति मुसलमानों में रोटी-बेटी के रिश्तों में, कमज़ोर जातियों का उपहास उड़ाना, विभिन्न जातियों के अलग कब्रिस्तान होना, कुछ मस्जिदों में नमाज़ के दौरान कमज़ोर जातियों को पीछे की सफों में ही खड़े-खड़े होने के लिए बाध्य करने, दलित मुसलमान तबकों के साथ कुछ इलाकों में छुआछूत के प्रचलन, अशरफिया जातियों के कुछ इलाकों में कमज़ोर जातियों की मस्जिदों को जलाने इत्यादि में नज़र आता है। जहां तक धार्मिंक वैधता का प्रश्न है मसूद फलाही की उर्दू में लिखित किताब ‘हिन्दुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान’ यहां के प्रमुख उलेमा और मौलवियों के जातिवादी चरित्र को साफ़ तौर पर नुमाया करती है।

पसमांदा सियासत की जमीन
यही ठोस पृष्ठभूमि है पसमांदा राजनीति और विमर्श के आगाज़ का। ‘पसमांदा’, जो कि एक फारसी शब्द है, का अर्थ होता है ‘वह जो पीछे छूट गया’। बिहार में 1998 में अली अनवर के नेतृत्व में ‘ऑल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़’ के गठन के बाद और उनकी लिखित किताब ‘मसावात की जंग (2001)’ के चलते यह शब्द काफी लोकप्रिय हुआ। इस किताब ने पसमांदा मुसलमानों की दयनीय स्थिति के बारे में ज़ोरदार बहस और पसमांदा राजनीति की ज़मीन तैयार की। बेशक मुस्लिम समाज में कमज़ोर जातियों के आंदोलनों का इतिहास पुराना है। आजादी के पहले से ऑल इण्डिया मोमिन कान्फ्रेंस के हस्तक्षेप, खास तौर पर जिन्ना के दो राष्ट्रों के सिद्धान्त का सीधा विरोध, काबिलेतारीफ है। मगर अली अनवर के हस्तक्षेप के बाद इस आंदोलन ने एक गुणात्मक छलांग लगाई है, इस पर दो मत नहीं हो सकते हैं।

अशराफिया सियासत को चुनौती
अगर जनसंख्या के हिसाब से देखें तो अजलाफ़ (पिछड़े) और अरजाल (दलित) मुसलमान भारतीय मुसलमानों की कुल आबादी का कम-से-कम 85 फीसद होते हैं। पसमांदा आंदोलन, बहुजन आंदोलन की तरह, मुसलमानों के पिछड़े और दलित तबकों की नुमाइंदगी करता है और उनके मुद्दों को उठाता है। यह भारत की मुख्यधारा के मुसलमानों की अकलियती सियासत को अशराफिया राजनीति मानता है और उसे चुनौती देता है। आखिर क्या है अशराफिया राजनीति? यह मुसलमानों के अभिजात्य उच्च-जातियों की राजनीति है जो कि सिर्फ कुछ सांकेतिक और ज•बाती मुद्दों को-जैसे कि बाबरी मस्जिद, उर्दू, अलीगढ़ मुस्लिम विविद्यालय, पर्सनल लॉ इत्यादि को उठाती रही है। इन मुद्दों पर गोलबंदी करके और अपने पीछे मुसलमानों का हुजूम दिखा के मुसलमानों के अशराफ़ तबके और उनके संगठन,जमीअत-ए-उलेमा-ए-हिन्द, जमात-ए-इस्लामी, आल इण्डिया पर्सनल लॉ बोर्ड, मुस्लिम मजलिस-ए-मसावरात, पॉपुलर फ्रण्ट ऑफ इण्डिया इत्यादि-अपना हित साधते रहे हैं और सत्ता में अपनी जगह पक्की करते हैं। इनका पूरा तर्ज़े-अमल गैर-जम्हूरी है और इस तरह के जज्बाती मुद्दों के ज़रिये यह अपना प्रतिनिधित्व तो कर लेते हैं मगर पसमांदाओं की बलि चढ़ा कर।

अल्पसंख्यक सियासत से फायदा किसे
अगर पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा की लिस्ट उठा कर देखें तो पाएंगे कि तब तक चुने गए सभी 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे, और इन 400 में 340 अशराफ और केवल 60 पसमांदा तबके से थे। अगर भारत में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी की 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफिया आबादी 2.1 फीसद (जो कि मुसलमान आबादी के 15 फीसद हैं) के आसपास होगी। हालांकि, लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.5 प्रतिशत है जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज्यादा है। साफ़ ज़ाहिर है कि मुस्लिम/अल्पसंख्यक सियासत से किस तबके को लाभ मिल रहा है। इसलिए पसमांदाओं के हलक के नीचे सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोटरे नहीं उतरती हैं, जिनमें सारी मुस्लिम कौम को पिछड़ा दिखाने और सारे मुसलमानों को आरक्षण के दायरे में लाने पर बहसें की जा रही हैं। अगर सच्चर रिपोर्ट ने ‘जाति’ को अपनी शोध पद्धति का एक बुनियादी तत्व बनाया होता तो शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार, वगैरह में भी हमें अशराफिया तबके के संदर्भ में उतने ही चौंकाने वाले आंकड़े मिलते जितना कि हमें उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व के सम्बंध में मिले हैं। यह बात साफ़ हो जाती कि मुसलमानों में कौन सा वर्ग वंचित वर्ग है?

टूटी मुसलमानों की एकांगी तस्वीर
पसमांदा विमर्श की एक बड़ी कामयाबी यह रही है कि उसने मुसलमानों की एकांगी तस्वीर को तोड़ दिया है, उसी तरह जिस तरह दलित-बहुजन आंदोलन ने हिन्दुओं की एकांगी पहचान में सेंध लगाई थी। इससे धर्म की पहचान कमज़ोर पड़ रही है और ‘समुदाय’ की वैकल्पिक व्याख्याओं को जगह मिली है। अली अनवर ने कुछ साल पहले कहा था-‘हम शुद्दर हैं..शुद्दर। भारत के मूलनिवासी हैं, बाद में मुसलमान हैं!’. एक तरफ तो इस सूत्रीकरण से उन्होंने पसमांदा तबकों का उन अशराफ मुसलमानों से, जो अपने आप को अरब या ईरान से जोड़ते हैं, फर्क बताया, वहीं दूसरी ओर धर्म की एकता की जगह सारे धर्मो की कमज़ोर जातियों की बहुजन एकता की सम्भावनाओं की ओर भी इशारा किया। उत्तर प्रदेश और बिहार में आजकल ‘दलित-पिछड़ा एक समान, हिन्दू हो या मुसलमान’ का नारा चल निकला है। ज़ाहिर है, सारे धर्मो की कमज़ोर जातियों की एकता प्रतिस्पर्धात्मक साम्प्रदायिकता और सेकुलरिज्म/साम्प्रदायिकता के विमर्श को कमज़ोर बनाएगा और भारत में एक नई राजनीति का आगाज़ करेगा। अगर जाति हिन्दुस्तान की बुनियादी पहचान है तो किसी जाति की इतनी संख्या नहीं है कि वह अपने आप को बहुसंख्यक कह सके । जब कोई बहुसंख्यक ही नहीं तो फिर अल्पसंख्यक का कोई मायने नहीं रह जाता.

राजनीतिक आंदोलन से हल होगा जाति का सवाल
कुल मिलाकर कहा जाये तो पसमांदा विमर्श ने जम्हूरियत के सवाल को मुस्लिम राजनीति का केन्द्रीय प्रश्न बना दिया है और अम्बेडकर की तर्ज़ पर यह ऐलान कर दिया है कि मुसलमानों के अंदर जाति का सवाल केवल सामाजिक सुधार के सहारे नहीं बल्कि राजनीतिक आंदोलन के ज़रिये ही हल होगा। अभी हाल में फारबिसगंज में पसमांदा मुसलमानों के संहार के बाद पसमांदा तबके से आए नेताओं-जैसे अली अनवर, डॉ. एजाज़ अली, सलीम परवेज़, डॉ. अयूब, शब्बीर अंसारी-की .खामोशी अत्यंत हैरान करने वाली है। इतिहास में जाकर देखें तो दलितों में बाबा साहेब अम्बेडकर के रेडिकल एजेण्डे को कुंद करने के लिए ही कांग्रेस ने बाबू जगजीवन राम को आगे बढ़ाया था। दलित राजनीति में अम्बेडकर पहले आए और बाद में जगजीवन राम। पसमांदा तबकों का अलमिया यह है कि उन्हें बाबू जगजीवन राम जैसे नेता पहले मिले लेकिन बाबासाहेब अम्बेडकर जैसा लीडर आंखों से अब भी ओझल है। पसमांदा तबकों को अब इंतज़ार है अपने अम्बेडकर का जो उनके रेडिकल एजेण्डे को ज़मीनी हकीकत बना सके।


[This article was published in Hastakshep, Rashtriya Sahara (Hindi), 16th July, 2011]

मैं बोरेवाला !


शेख पीरन बोरेवाला  


कसाब, पिन्जारी, लद्दाफ, दुदेकुला, घोड़ेवाला, लकड़ेवाला, चमड़ेवाला-
और मैं हूँ बोरेवाला
एक अनजान मुसलमान
मुसलमानी तवारीख में मेरी कहीं जगह नहीं
खानदानी मुसलमानों द्वारा अँधेरे में धकेला हुआ
अपने काम के चलते तिरस्कृत
किन्तु फिर भी एक मुसलमान
बोरेवाला मुसलमान!

******

जंगल जैसे मेरी माँ थी
पहाड़ियों पर चढ़ता था
लकड़ियों को काट कर बेच कर जीता था
घाटियों, सोतों में घुमते हुए
खजूर का पत्ता जमा कर
चटाइयां बनाता था
इस तरह मैं बोरेवाला कहलाने लगा  

तुम मुझसे परहेज़ करते रहे
क्यों कि मेरी जाति और जीने का अंदाज़ ही ऐसा था
तुम मुझे नाकाबिल समझते रहे
भूखे पेट रह कर भी मैंने कलमा सीखा
तुम मुझसे दूरी रखते हो
फिर भी मैं सूरा रटता हूँ
तुम्हारी तरह नमाज़ रोज़ा और ज़कात करता हूँ
कभी-कभी तुम्हारे बीच होता हूँ
किन्तु तुम्हारी आँखों में फिर वही घृणा
अजीब सी बातें करते हो
ठंडापन होता है तुम्हारे व्यवहार में
और हंसी उड़ाते हो
मेरी, मेरे काम और मेरी भाषा की.

क्या मानवीय है और क्या अमानवीय?
कौन सभ्य है और कौन असभ्य?
मैं बोरेवाला वंश मैं पैदा हुआ इन चीज़ों को नहीं जानता
मैं तो इतना ही जानता हूँ
कि मैं एक मुसलमान हूँ!
इस्लाम मेरा भी धर्म है!

मुझे बोरेवाला कहो
या कहो गिरिजन मुस्लिम
या कहो दलित मुस्लिम
या कहो कोई भी मुस्लिम
किन्तु एक बात साफ़ है...
यदि मैं बोरा बुनने का काम न करूँ तो
तुम्हारा जनाज़ा ही नहीं निकलेगा !!!

******

हिंदुओं के अत्याचार और मुल्लाओं के भेद-भाव से
मैं अभी ही तो जागा हूँ. 
मेरी अपनी ही निष्क्रियता और उदासीनता
न जाने कब से जलाती रही है मुझे 
किन्तु अब मैं बजाने लगा हूँ बोरेवालों का नगाड़ा !!!

अनु: अशोक यादव 

(मूल तेलुगु से अनुवाद  नरेन बेडिदे के सहयोग से)  
  

अव्वल कलमा

याकूब कवि


Yakoob Kavi
आपको यकीन तो न आए शायद
लेकिन हमारी समस्याओं का सिरे से कहीं ज़िक्र ही नहीं
अभी भी, एक बार फिर से, उनकी दसवीं या ग्यारहवीं पीढ़ी
जिन्होंने खोई थी अपनी शानो-शौकत
बात कर रही है हम सब के नाम पर

क्या इसी को कहते हैं अनुभव की लूट?


सच तो यही है—नवाब, मुस्लिम, साहेब, तुर्क—
जिनको भी खिताब किया जाता है ऐसे, आते है उन वर्गों से
जिन्होंने खोई अपनी सत्ता, जागीर, नवाबी और पटेलिया शान-शौकत
लेकिन तब भी सुरक्षित कर ली उन्होंने, कुछ निशानियाँ उस गौरव की


जबकि हमारी जिंदगियां सिसकती रहीं हमारे हाथों और पेट के बीच
हमारे पास तो कभी कुछ महफूज़ करने को था ही नहीं
आखिर हम बयाँ भी क्या करते...?
हम, जो अपनी माँ को ‘अम्मा’ कहते थे
नहीं जानते थे कि उनको ‘अम्मीजान’ कहा जाता है
अब्बा, अब्बाजान, पापा—-बाप को ऐसे ही संबोधित करते हैं, हमको बताया गया
आखिर मालूम भी कैसे होता—हमारी आय्या ने तो कभी ये सिखाया ही नहीं
हवेली, चारदीवारी, खल्वत, पर्दा—-
हम फूस के महलों में बसर करने वाले क्या जानें?
कहा था मेरे दादा ने, नमाज़ का मतलब उठ्ठक-बैठक!
बिस्मिल्लाहइर रहमानिर रहीम, अल्लाह-ओ-अकबर, रोज़ा की भाषा
कहाँ सीखी हमने कभी

हमारे लिए त्यौहार का मतलब था अचार-भात
उनके लिए बिरयानी, भुना गोश्त, पुलाव और शीर खोरमा
वह, पहने हुए शेरवानी, रूमी टोपी, सलीम शाही जूते
इत्र की खुशबू में नहाए हुए
और हम, अपने चिथड़ों में मस्त

आपको यकीं तो न आएगा अगर हम बयां भी करें
और आखिरकार हमें ही शर्मिंदा होना पड़े शायद

सेंटूसाबू, उड्डान्डु , दस्तगीरी, नागुलू , चिना आदाम,
लालू, पेदा मौला, चीनामौला, शेख श्रीनिवासु,
बेटमचारला मोइनु, पातिकत्ता मालसूरू—क्या यह हमारे नाम नहीं?
शेख, सैय्यद, पठान—-अपने खानदानों के शजरों की अकड़ में
कभी आने भी दिया तुमने हमें अपने करीब !
लद्दाफ, दूदेकुला, कसाब, पिनजरी...
हम रहे हमेशा अवशेष उस समय के
जब हमारे पेशे ने जाति बन कर हमें डसा था
हम ‘भिश्ती’ बने, तुम्हारे घरों तक पानी ढोने के वास्ते
और ‘धोबी’ और ‘धोबन’, तुम्हारे कपड़े धोने के लिए
‘हज्जाम’, जब काटे केश तुम्हारे
और ‘मेहतर’, ‘मेहतरानी’ जब धोये तुम्हारे पाखाने
हम रहे हमेशा अवशेष उस समय के
जब हमारे पेशे ने जाति बन कर हमें डसा था

वह कहते हैं, ‘हम सब मुसलमान हैं’ !
सहमत हैं हम भी, तो फिर इस भेद-भाव का क्या मतलब?

अच्छा ही लगेगा हमको—-अगर यह खुदाई नुमाया करे उन हिसाबों को
जो लंबे अरसे से दफन हैं, क्यों ऐतराज़ होगा हमें भला!
अब क्या जानना बाकी रह गया है साझे दुश्मन के बारे में
अब तो राज़ फाश करना है इस साझी मैत्री का !
हाँ, हम ऐसा मानते हैं: जो भी शोषित हैं वह दलित हैं
परन्तु अब पुन: परिभाषित करना पड़ेगा शोषण को भी !

आश्चर्य, आश्चर्य —-जो ज़बान हम बोलते हैं हमारी नहीं
बताया जाता है कुछ ऐसा ही हमें !
हम उस ज़बान को नहीं जानते जिसे तुम हमारी कहते हो
बन गए हैं हम ऐसे लोग जिनकी कोई मातृभाषा ही नहीं
बहिष्कार करते हो क्योंकि तेलुगु बोलते हैं
‘मुसलमान हो कर भी बड़ी अच्छी तेलुगु बोलते हो तुम’
मुझे खुश होना चाहिए या उदास, पता नहीं!
हमारे सारे ख्वाब तेलुगु हैं, हमारे आंसूं भी तेलुगु हैं
जब हम बिलबिलाते हैं भूख से, या कराहते हैं दर्द से
अरे, हमारी तो सारी अभिव्यक्ति ही तेलुगु है!
पहेली बन जाते थे हम जब नमाज़ अदा करने को कहा जाता था
हैरत से कूद पड़ते थे जब आजान का स्वर कान में पड़ता था
हम तो तलाशते थे मौसीकी के रागों को सूरों में
जब इबादत करने को कहा गया अनजानी ज़बान में
खो दिया अधिकार हमने इबादत के लुत्फ़ का !

आपको यकीन तो न आए शायद
लेकिन हमारी समस्याओं का सिरे से कहीं ज़िक्र ही नहीं

आत्म-सम्मान तो एक दस्तरख्वान है, फैला हुआ सब के सामने
यह विशेषाधिकार नहीं अशराफ़ का
इस से फर्क नहीं पड़ता कौन रौंदता है इज्ज़त अपने भाई की
विश्वासघात तो आखिर विश्वासघात ही है
सबसे बड़ा धोखा तो अनुभव की लूट है !

अनु: खालिद अनीस अंसारी

(मूल तेलुगु से अनुवाद  नरेन बेडिदे के सहयोग से)

Wednesday, July 11, 2012

Press-Release


Shri Ali Anwar Ansari, MP and National President,  Pasmanda Muslim Mahaz, has described the incident of setting ablaze the houses of the pasmanda muslims of the Asthan village of the Kunda  teshil, Pratapgarh, as preplanned and an instance of political conspiracy. He has alleged that the main perpetrators of this violence enjoy protection from top brass of the ruling party and hence are still roaming free.
Ali Anwar Ansari

 A delegation of the Mahaz, led by Shri Anwar, today visited the ill-fated   village. The delegation was comprised of Haji Nisar Ahmad Ansari, President Pasmanda Mahaz (UP Unit), Mohammad Harun Faridi, Haji Mumtaz Ansari, Shamsher Rayeen, Kalimullah Ansari, Haji Shafeequr Rahman and Dr. Abdul Rasheed, the National President of Momin Conference.

Charred copies of the Quran
Having reached the ill-fated village, the Mahaz delegation found out that the violent mob, in the presence of the police forces, did not only set 54 houses ablaze but also took away all the assets. Moreover, they also put the mosque and dargah on fire. The fire engulfed all the copies of the Holy Quran lying there.

According to the aggrieved villagers, the violence was masterminded by two persons; one of them is the person who lost the Gram Pradhan election to a member of the Pasmanda community while the other, a PDS dealer, is angry with the villagers due to a complaint lodged against his irregularities. Shri Anwar believes that these two (the PDS dealer and the one who lost the Gram Pradhan election) are the real culprits and they are yet to be arrested because they are being protected by a top leader of the ruling party.

The Damaged Mosque
In a press conference that he organized in Allahabad while returning from the Asthan village, Shri Anwar demanded for a CBI inquiry into the whole episode that had claimed not only the life of a Dalit girl but had also caused the false implication of four persons, including three teenagers.

Shri Anwar pointed out that the last election of the Gram Pradhan had witnessed an unprecedented solidarity between the dalits and the pasmanda community, resulting in the victory of the pasmanda candidate. This did not go well with the dominant communities in the village. Therefore, according to him, the brutal murder of the dalit girl was a conspiracy hatched to break that solidarity between the two communities. He demanded that there should be a proper investigation into the whole episode.
Tailoring Center Completely Destroyed

He further demanded that the government should provide a compensation of Rs. 5 lakh each to all those 54 households whose houses had been burnt to ashes and assets were looted; at least ten youths from the village should be recruited in the Police force; and some persons should be issued licenses to keep personal firearms.

10 July 2012
 Allahabad 




























































































































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